इंद्रा एक्सप्रेस नेटवर्क
वाराणसी। ऊर्ध्वाम्नाम श्री काशी सुमेरु पीठ डुमरांव बाग कालोनी अस्सी में चातुर्मास कर रहे पूज्य जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानन्द सरस्वती जी महाराज ने अपने चातुर्मास प्रवचन में कहा कि आत्मा ब्रह्म बनता नहीं, अपितु स्वयं ही ब्रह्म है। इसका ब्रह्म त्व अज्ञान द्वारा आवृत्त अर्थात् ढँका हुआ है। ज्ञान द्वारा ही वह प्रत्यक्ष होता है ।ब्रह्म की प्राप्ति कर्म, उपासना या समाधि से नहीं, अपितु केवल ज्ञान से ही सम्भव है। उपनिषद् में कहा गया है, “कर्म से अकर्म रूप मोक्ष सिद्ध नहीं होता ।” वहीं वेदान्त भी कहता है कि “यदि आत्मा शरीरी है, तो सब शरीर उसी के हैं, अन्यथा उसका कोई शरीर नहीं है ।” सर्व आत्मा ही है। शंकराचार्य जी महाराज ने आगे कहा कि उपनिषद् का कथन है कि “यह सारी सृष्टि आनन्द से उत्पन्न हुई है, आनन्द में ही स्थित है और आनन्द में ही लीन हो जायेगी ।” तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि “आनन्द ही ब्रह्म है।” ऐसा ज्ञान ब्यक्ति के दुःख के विनाश की सर्वोपरि विद्या है। श्रुति कहती है, “एकमेवाद्वितीयम्।” यह आत्मा एक ही है और अद्वितीय है। दूसरा कोई है ही नहीं। आत्मा स्वयम् प्रकाश है, वह किसी दूसरे के प्रकाश से प्रकाशित नहीं होता। यह मन, बुद्धि, इन्द्रियों से परे है। आत्मा स्वयम् “मैं” है। उसे विषयों की भाँति नहीं जाना जा सकता। उन्होंने कहा कि यह आत्मा देहइन्द्रियों के कारण ही भिन्न-भिन्न सा भासता है। अकर्ता भी कर्ता जैसा भासता है। आप बुदबुदा नहीं, जल हैं, यह “अहं” ही बुदबुदा है जो काल का खिलौना है। ब्यक्ति घट नहीं मिट्टी, जेवर नहीं सोना, जीव नहीं, अपितु चैतन्य है। स्वर्ग में, नरक में, सिद्ध लोक लोक में, समाधि में जीव जाता है, आप नहीं जाते। शंकराचार्य जी महाराज ने यह भी कहा कि फूल को प्रकाश से देखते हैं, प्रकाश को नेत्र से, नेत्र को मन से, मन को बुद्धि से और बुद्धि को संस्कारयुक्त अहंकार से देखते हैं परन्तु आत्मा जो सबको देखने वाला है, उसे किससे देखोगे वह स्वयम् ज्ञान है, वही दृष्टा है। आत्मा न कर्ता है, न भोक्ता। कर्म की आवश्यकता उसे नहीं है। कर्म शरीर के लिए है। आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध मुक्त चैतन्य है। वही ब्रह्म है। संस्कार युक्त ज्ञान का नाम ही “अन्त:करण” है।